बॉलीवुड को 110 साल से अधिक समय हो चुका है। लेकिन क्या आप जानते हैं पहली भारतीय मूक फिल्म को लेकर आज भी एक राय नहीं है। कई लोगो का मानना है कि 18 मई, 1912 को मुंबई के कोरोनेशन सिनेमटोग्राफ, गिरगांव में रिलीज दादासाहेब तोर्णे की श्री पुंडालिक पहली भारतीय मूक फिल्म थी, हालांकि भारत सरकार और अधिकतर फिल्म इतिहासकार दादासाहेब फाल्के की 1913 में रिलीज राजा हरिश्चंद्र को ही पहली पूरी लंबाई की मूक फीचर फिल्म मानते हैं। श्री पुंडालिक के बारे में इन लोगों का तर्क है कि एक फिल्म न होकर एक प्रसिद्ध नाटक की फोटोग्राफिक रिकार्डिंग थी। विश्व सिनेमा में 1890 से 1920 तक के युग को मूक सिनेमा का युग कहा जाता है। इस समय दुनिया भर के थियेटरों में बिना आवाज की फिल्में ही प्रदर्शित होती थीं। हालांकि, बड़े शहरों में कई फिल्मों में दर्शकों को लुभाने के लिए फिल्म के साथ ऑर्केस्ट्रा या पियानोवादक भी होता था। अब बात करते हैं पहली आधिकारिक भारतीय फिल्म राजा हरिश्चंद्र की मेकिंग की।
दादासाहेब फाल्के अपने बड़े पुत्र भालचंद्र के साथ अमेजिंग एनीमल्स फिल्म देखने गए और स्क्रीन पर जानवरों को देखकर भालचंद्र काफी चौंके और उन्होंने अपनी मां सरस्वती बाई को अपना अनुभव सुनाया। परिवार में किसी ने भी उनकी बात पर भरोसा नहीं किया। इसलिए फाल्के अगले दिन पूरे परिवार को लेकर फिर से फिल्म देखने गए। उस दिन ईस्टर था, इसलिए थिएटर में ईसामसीह के जीवन पर 1906 में बनी द लाइफ ऑफ क्राइस्ट फिल्म लगी थी। इसे देखते हुए उन्हें ख्याल आया कि क्यों न वह भी राम और कृष्ण पर एक फिल्म बनाएं। लेकिन, उन्हें न तो फिल्म बनाने की तकनीक आती थी और न ही देश में कोई ऐसा था, जो इस काम में उनकी मदद कर सके। इसलिए फाल्के फिल्म निर्माण तकनीक सीखने के लिए दो सप्ताह के लिए लंदन चले गए और वहां से लौटने के बाद उन्होंने फाल्के फिल्म कंपनी की स्थापना की। देखा जाए तो यही बॉलीवुड की नींव थी। अब सवाल था कि फिल्म बनाने के लिए उपकरण कहां से हासिल करें। इसके लिए फाल्के ने इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका में प्रदर्शनियों से जरूरी उपकरण आयात किए। अब फाल्के को अपनी फिल्म के लिए निवेशकों की तलाश थी। निवेशकों को आकर्षित करने के लिए उन्होंने एक सूक्ष्म फिल्म अंकुराची वढ़ बनाई। उनकी इस फिल्म को देखकर यशवंतराव नादकर्णी और नारायणराव देवहरे ने उन्हें कर्ज देने की पेशकश की। फिल्म की कास्ट और क्रू के लिए उन्होंने अखबारों में इश्तहार दिए। फाल्के ने लंदन से विलियमसन कैमरा और कोडक की कच्ची रील मंगाई। अपने सपने को पूरा करने के लिए उन्हाेंने घर पर ही प्रोसेसिंग प्लांट लगाया और अपने परिवार के लोगों को यह सिखाया। जिस बॉलीवुड में ब्रेक पाने के लिए आज लड़कियां ललायित रहती हैं, वहां की पहली फिल्म की हीरोइन के लिए फाल्के को कोई महिला ही नहीं मिली और पुरुष ने ही पहली हीरोइन का किरदार निभाया। फिल्म की पटकथा, निर्देशन, संपादन और मेकअप से लेकर फिल्म प्रोसेसिंग तक का काम खुद फाल्के ने किया। कैमरा त्रयंबक बी. तैलंग ने संभाला और छह माह 27 दिन में फिल्म की शूटिंग पूरी हुई। फाल्के ले 3700 फीट यानी लगभग चार रील की शूटिंग की। 21 अप्रैल 1913 को बंबई के ओलंपिया थिएटर में इसका प्रीमियर हुआ और फिल्म 3 मई 1913 को गिरगांव के दो थिएटरों कोरोनेशन सिनेमटोग्राफ और वैरायटी हॉल में रिलीज हुई। यह फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल रही। जिससे देश में फिल्म उद्योग की नींव पड़ी। इस ऐतिहासिक फिल्म की आज सिर्फ पहली और आखिरी रील ही सुरक्षित है। हालांकि कुछ फिल्म इतिहासकार कहते हैं कि ये रील 1917 में फाल्के के रीमेक सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की हैं।
फिल्म में राजा हरिश्चंद्र की भूमिका दत्तात्रेय दामोदर दबके ने और उनकी पत्नी तारामती की भूमिका अन्ना सालुंके ने निभाई थी। भालचंद्र फाल्के (दादासाहेब के बड़े पुत्र) रोहिताश्व और गजानन वासुदेव विश्वामित्र की भूमिका में थे। फिल्म के अन्य कलाकारों में दत्तात्रेय क्षीरसागर, दत्तात्रेय तैलंग, गणपत जी शिंदे, विष्णु हरि औंधकर और नाथ टी तैलंग थे।