जब मरीज की मौत होने पर काट दिए जाते थे डॉक्टर के हाथ
जब चिकित्सा की बात आती है तो हमारे अधिकतर नेता देश की बजाय विदेशों का रुख करते हैं। उन्हें हमारे देश के डॉक्टरों और चिकित्सा पर कम ही भरोसा होता है। हालांकि, देश की बहुत बड़ी आबादी के लिए सामान्य चिकित्सा सुविधा हासिल करना भी किसी चुनौती से कम नहीं है। लेकिन, हम आपको बताना चाहते हैं कि जिस यूरोप और अमेरिका में हमारे नेता इलाज कराने जाते हैं, वहां पर 300 साल पहले तक चिकित्सा का मतलब झाड़फूंक ही था, जबकि भारत में सैकड़ों साल पहले से चिकित्सा और शल्य चिकित्सा यानी ऑपरेशन हो रहे थे। इस कड़ी में हम आपको चिकित्सा को लेकर कुछ रोचक जानकारी दे रहे हैं।
असल में यूरोप या अमेरिका के पास चिकित्सा को लेकर कुछ भी लिखित में नहीं हैं। 19वीं सदी में जाकर वहां चिकित्सा पर काम के बारे में जानकारी मिलती है। इसलिए वहां पर चिकित्सा के बारे में जो भी जानकारी है, वह पत्थरों पर उकेरी गई तस्वीरों, हड्डियों के अवशेषों अथवा चिकित्सा के लिए इस्तेमाल हुए औजारों से मिलती है। हम आपको बता दें कि मनुष्य पहले मौत और बीमारी को प्राकृतिक ही नहीं मानता था। उसकी नजर में यह दैवीय या शैतानी ताकत की वजह से होता था। सर्दी-जुकाम या कब्ज को ही सामान्य माना जाता था और उपलब्ध जड़ी-बूटियों से उसका इलाज होता था। यदि किसी की मौत किसी बीमारी की वजह से होती थी तो उस व्यक्ति के शरीर से बीमारी को बाहर निकालने के लिए उसकी खोपड़ी में एक 2.5 से 5 सेंटीमीटर का छेद किया जाता था। ब्रिटेन, फ्रांस, यूरोप के कई हिस्सों और पेरू में इस तरह की खोपड़ियां मिली हैं। हालांकि, चोट और टूटी हड्डियों का इलाज मनुष्य काफी पहले से करने लगा था।
कलेंडर और लेखन की खोज के बाद मध्य पूर्व और मिस्र में चिकित्सा के बारे में कई प्रमाण मिलते हैं। प्राचीन मेसोपोटामिया में फन्नी लिपि में लिखे हुए ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिन्हें चिकित्सक इस्तेमाल करते थे। फ्रांस के संग्रहालय मे एक शिलालेख रखा हुआ है, जिस पर ईसा पूर्व 18वीं सदी के बेबीलोन के राजा हम्मुरबी के नियम खुदे हुए हैं। इसमें डॉक्टरी के कानून और विफल होने पर मिलने वाली सजा का भी जिक्र है। अगर किसी फोड़े को चीरा लगाने पर किसी मरीज की मौत हो जाती थी तो डॉक्टर के हाथों को काट दिया जाता था। लेकिन, अगर मरने वाला कोई गुलाम हो तो डॉक्टर को सिर्फ एक दूसरा गुलाम देना होता था। हालांकि, इस सब के बावजूद बेबीलोन के समय के किसी भी डॉक्टर का नाम उपलब्ध नहीं है। लेकिन, जब प्राचीन मिस्र में चिकित्सा के बारे में जानकारी ली गई तो पहले डॉक्टर इम्होटेप का नाम सामने आता है। इम्होटेप ईसा पूर्व तीसरी सदी के राजा डजोसेर के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने ही सक्काराह के सीढ़ीवाले शुरुआती पिरामिड का डिजाइन तैयार किया था।
अब भारतीय चिकित्सा की बात करते हैं। भारतीय चिकित्सा की शुरुआती अवधारणा तो वेदों में ही लिखी गई है। अथर्ववेद में लिखी बातें कम से कम ईसा पूर्व 2000 साल या इससे भी पहले की हैं। हालांकि आयुर्वेद की पद्धति को देने वाले धनवंतरी हैं। वैदिक चिकित्सा का समय ईसा से 800 साल पहले तक रहा। इसके बाद 1000 ईस्वी तक भारतीय चिकित्सा का स्वर्णकाल रहा। इस अवधि मेे आचार्य चरक द्वारा चरक संहिता और शल्य चिकित्सक आचार्य सुश्रुत द्वारा सुश्रुत संहिता जैसे चिकित्सा व शल्य चिकित्सा के महान ग्रंथों को लिखा गया। इनके बाद चिकित्सा पर लिखे गए अधिकतर ग्रंथ या पुस्तकें इन्हीं दोनों ग्रंथों पर आधारित रहीं।
आधुनिक चिकित्सा में ऑपरेशन की एक बड़ी भूमिका है। इसके लिए शरीर की भीतरी संरचना को जानना अत्यंत जरूरी है। हिंदू धर्म में शव के चीरफाड़ को सही नहीं माना जाता था, इसलिए सुश्रुत संहिता में शरीर की एनाटॉमी जानने के लिए अत्यंत ही रोचक विधि बताई गई है। इसके मुताबिक किसी भी शव को एक टोकरे में रखकर सात दिन के लिए किसी नदी में डुबो दें। सात दिन बाद जब इस शव को निकाला जाएगा तो उसके हिस्से बिना काटे अलग हो जाएंगे। हालांकि, इस विधि की वजह से भारतीय शल्य चिकित्सा का ज्यादा जोर हड्डियों, मांसपेशियों, स्नायुबंधन यानी लिगामेंट और जोड़ों पर रहा। धमनियों व शरीर के भीतरी अंगों के बारे में उतना जोर नहीं दिया गया।
आचार्य चरक और सुश्रुत दोनों ने ही अनेक बीमारियों का पता लगाया था और उनका वर्गीकरण भी किया था। सुश्रुत के मुताबिक 1120 तरह की बीमारियां थीं। भारतीय वैद्य रोग का पता लगाने के लिए पांचों इंद्रियों का इस्तेमाल करते थे। इलाज मुख्य रूप से भारत में मिलने वाली जड़ी बूटियों से ही होता था। चरक को ऐसे 500 और सुश्रुत को 760 औषधीय पौधों का ज्ञान था। इसके अलावा गंधक, आर्सेनिक, सीसा यानी लेड, कॉपर सल्फेट और सोने जैसे खनिजों का इस्तेमाल भी इलाज में होता था। इलाज में स्वच्छता उपायों की बड़ी भूमिका होती थी। सर्जरी में प्राचीन भारतीय दवाएं अपने शीर्ष पर पहुंच चुकी थीं। भारतीय वैद्य ट्यूमर से लेकर अनेक तरह के ऑपरेशन करते थे और घावों पर टांके भी लगाते थे। आचार्य सुश्रुत ने किसी भी शल्य चिकित्सक के पास 20 तीखी धार वाले और 101 कम धार वाले उपकरण होना अनिवार्य बताया है। ये सभी उपकरण स्टील के होने चाहिए। ऑपरेशन के दौरान अल्कोहल का भी इस्तेमाल किया जाता था। खून रोकने के लिए गर्म तेलों और अर्क का इस्तेमाल होता था। भारतीय वैद्यों को दो तरह के ऑपरेशनों में महारत हासिल थी। पहला ब्लेडर से पथरी निकालना और दूसरा प्लास्टिक सर्जरी। उस समय कई अपराधों में नाक काटने की सजा दी जाती थी, ऐसे मामलों में मरीज के माथे या गालों से टिश्यू लेकर कटी हुई नाक को जोड़ दिया जाता था। आंख में मोतियाबिंद का ऑपरेशन करना भी भारतीय वैद्य जानते थे।
चीन में भी सम्राट हुआंग्डी द्वारा लिखित हुआंग्डी निजिंग में वहां की चिकित्सा पद्धति के बारे में जानकारी दी गई है। बताया जाता है कि इसे ईसा से तीन हजार साल पहले लिखा गया है। चीन में आज भी उनकी पद्धति बहुत लोकप्रिय है और पश्चिमी चिकित्सा का चीन में प्रवेश 19वीं सदी में ही हुआ। चीन में मानव शरीर की एनाटॉमी की जानकारी को लेकर कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। हालांकि, एनाटॉमी पर लिखने वाले वांग क्वीनग्रेन ने 1798 में प्लेग के दौरान कुत्तों द्वारा बुरी तरह से काटने से मरी एक बच्ची के शरीर की जांच से शरीर की एनाटॉमी जानने की बात लिखी है। परंपरागत चीनी एनाटॉमी लौकिक प्रणाली पर आधारित है। जिसके मुताबिक मानव शरीर में 12 चैनल औेर तीन ज्वलन क्षेत्र होते हैं। शरीर में पाच अंग दिल, फेफड़े, यकृत, ितल्ला और गुर्दे होते हैं। हर अंग एक ग्रह, रंग, खुशबू, टोन और स्वाद से जुड़ा है। शरीर में 365 हड्डियां और इतने ही जोड़ होते हैं। धमनियों में ख्ून और हवा होती है। चीनी दवाओं में जड़ी बूटियों व खनिजों के साथ ही मानव सहित जानवरों के शरीर के हिस्से भी होते हैं। 16वी सदी की पुस्तक बेनकाओ गनगमु में ली शिजेन ने 1000 प्राचीन बूटियों का जिक्र किया है।
हायड्रोथेरेपी या जल चिकित्सा की शुरुआत चीन से हुई। ईसापूर्व 180 में बुखार उतारने के लिए ठंडे पानी से स्नान कराया जाता था। इसके अलावा एक्यूपंचर भी चीन की देन है। इसमें शरीर के कई हिस्सों में गर्म या ठंडी सुइयां चुभाई जाती हैं। इस पद्धति को ईसा से ढाई हजार साल पहले से अपनाया जा रहा है।