लोकरंग

कहां है 400 करोड़ साल पुरानी चट्टान और अर्थशास्त्र की पांडुलिपि?

लोकरंग की इस श्रृंखला में हम आपको भारत के राज्यों के बारे में कुछ अनोखी और रोचक जानकारी देने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले हम आपको दक्षिण के कर्नाटक राज्य के बारे में बताते हैं। कर्नाटक का जिक्र होते ही हमारे मन में बेंगलुरू, कर्नाटक संगीत और मैसूर का विश्व प्रसिद्ध दशहरा उभरते हैं। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि कर्नाटक राज्य का गठन आजादी के 9 साल बाद 1956 में हुआ था और 1973 तक इसे मैसूर राज्य के नाम से जाना जाता था।

कर्नाटक में अनेक प्रमुख साम्राज्य भी रहे हैं। इनमें विजयनगरम व टीपू सुल्तान का मैसूर साम्राज्य प्रमुख है। विजयनगरम की राजधानी हम्पी के अवशेष आज भी इस साम्राज्य के वैभव को दर्शाते हैं। यहां के मंदिर भी अतुलनीय हैं। इनमें प्रमुख रूप से 13वीं सदी का उडुपी श्रीकृष्ण मंदिर, श्रृंगेरी का विद्याशंकर मंदिर, भटकल का मुरुदेश्वर शिवमंदिर, हंपी का विट्ठल मंदिर, विरुपक्ष मंदिर, गोकर्ण का महाबलेश्वर मंदिर, बेल्लूर का चेन्नाकेशव मंदिर, कोलार का कोटिलिंगेश्वर मंदिर, पट्टाडक्ल का मल्लिकार्जुन मंदिर, बल्लिगवी का केदारेश्वर मंदिर व दुर्गा गुडी मंदिर प्रमुख हैं।

देश की 70 फीसदी कॉफी यहीं होती है

आपको बता दें कि भारत दुनिया के टॉप 10 कॉफी उत्पादक देशों में शामिल है और कर्नाटक देश में कॉफी का भी सबसे बड़ा उत्पादक है। देश में कुल 2.5 लाख काॅफी उत्पादक हैं। हमारे यहां अरेबिका और रोबस्टा दो तरह की कॉफी उगाई जाती है। देश के कुल कॉफी उत्पादन का 70 फीसदी कर्नाटक में होता है। इसमें बड़ा हिस्सा रोबस्टा कॉफी का है। कोडागु, चिकमंगलूर, मैसूर, शिमोगा और हासन राज्य के प्रमुख काॅफी उत्पादक क्षेत्र हैं। कर्नाटक में सर्वाधिक काॅफी उत्पादन की एक वजह यहां पर प्रति हेक्टेयर पर 1000 किलोग्राम की उच्च उत्पादकता दर है, जिससे यहां कॉफी की पैदावार अन्य जगहों की तुलना में कहीं सस्ती पड़ती है।

400 करोड़ साल पुरानी बिगुल चट्टान

दक्षिण बेंगलुरू के बासवनगुडी इलाके में बिगुल चट्टान स्थित है। जमीन के ऊपर उभरी यह चट्टान दुनिया की सबसे पुरानी चट्टानों में से एक है। यह चट्टान 340 से 400 करोड़ साल पुरानी है। भूमि विज्ञान के छात्रों और रिसर्चरों के लिए कुतूहल का विषय है। इस चट्टान की जांच पहली बार 1916 में मैसूर जियोलॉजिकल विभाग के डॉ. डब्लू.एफ. स्मिथ ने की थी। इस चट्टान का नाम बिगुल रखे जाने की भी अपनी कहानी है। बंगलौर के शासक केम्पेगौड़ा ने 1585 में बंगलौर के चारों ओर चार निगरानी टावर बनाए थे। इनमें से एक टॉवर इस करोड़ों साल पुरानी चट्टान के ऊपर था। इस टॉवर से बाकी के तीनों टावर व पूरा शहर दिखता था। सूर्यास्त के समय इस टॉवर पर एक संतरी बिगुल बजाकर व मशाल जलाकर यह संकेत देता था कि सबकुछ ठीक है। यही नहीं किसी घुसपैठ के बारे में बताने के लिए भी वह बिगुल का ही इस्तेमाल करता था। इसी वजह से इस चट्टान को बिगुल चट्टान या कन्नड़ में कहले बंडे कहा जाने लगा।

कित्तूर चेन्नम्मा ने चटाई थी अंग्रेजों को धूल

आजादी की लड़ाई में महिलाओं के योगदान की बात आती है तो महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सबसे पहले आता है। लेकिन, लक्ष्मीबाई जैसी अनेक वीरांगनाओं ने आजादी के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया। इनमें कर्नाटक के कित्तूर की महारानी चेन्नम्मा का बलिदान भी रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं हैं। 23 अक्टूबर 1778 को जन्मी महारानी चेन्नम्मा लिंगायत पंचमसाली समुदाय से थीं। उन्होंने बचपन से ही घुड़सवारी, तलवारबाजी और धनुष चलाने का प्रशिक्षण लिया था। जब वह सिर्फ 15 साल की थीं, उनका विवाह दसाई परिवार के राजा मल्लसारजा से हो गया। 1816 में राजा की मौत हो गई और 1824 में उनका एकमात्र पुत्र भी कालकवलित हो गया। अब रानी के पास ही पूरे राज्य में फैली अव्यवस्था का ठीक करने और उसे अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने की जिम्मेदारी थी। रानी चेन्नम्मा के शिवलिंग्पा को गोद लेकर राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इससे अंग्रेज बौखला गए। अंग्रेजों ने रानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अक्टूबर 1824 में रानी ने वीरता का परिचय देते हुए अंग्रेजों को भारी नुकसान पहुंचाकर पराजित कर दिया। रानी की सेना ने कलक्टर जाॅन ठाकरे को मार डाला और दो ब्रिटिश अफसरों को बंदी बना लिया। युद्ध समाप्ति की संधि के बाद रानी ने उन्हें रिहा कर दिया, लेकिन अंग्रेजों ने छल करते हुए बहुत बड़ी सेना के साथ दोबारा हमला कर दिया। रानी ने पूरी वीरता के साथ अंग्रेजों का मुकाबला किया, लेेकिन वह हार गईं और उन्हें बाईहोंगल के किले में युद्धबंदी बना लिया गया। 21 फरवरी 1829 को उनकी यहां पर ही मौत हो गई।

13 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं

कन्नड़ कर्नाटक की आधिकारिक भाषा है और राज्य के 66 प्रतिशत से अधिक लोग इसे बोलते हैं। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि कर्नाटक में 13 से अधिक भारतीय भाषाएं बोली जाती हैं। राज्य में उर्दू दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। तटीय इलाकों में रहने वाले करीब 11 फीसदी मुस्लिम लोग इसे बोलते हैं। इसके बाद तेलुगू पांच फीसदी व तमिल तीन फीसदी लोगों द्वारा बोली जाती है। यहां पर तीन फीसदी लोग मराठी भाषी हैं। इनके अलावा राज्य में लंबाडी, तुलु, कोंकणी, मलयालम व बेंगलुरू में हिंदी भी बोली जाती है। इसके अलावा अरे भाषे, बैरी भाषे, नवायथी और कोडवा टाक यहां की बोलियां हैं।

मत्तूर जहां संस्कृत में ही होती है बातचीत

आज देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो संस्कृत का एक श्लोक भी ठीक से उच्चारित नहीं कर पाते हैं। उनके लिए संस्कृत एक बहुत ही कठिन भाषा है। लेकिन, कर्नाटक के शिवमोगा जिले के पास मत्तूर एक ऐसा गांव हैं, जहां पर सिर्फ संस्कृत ही बोली जाती है। पांच हजार से अधिक आबादी के इस गांव में दैनिक वार्तालाप की भी भाषा संस्कृत ही है। शिवमोगा से चार किलोमीटर की दूरी पर तुंगा नदी के किनारे बसा यह गांव वैदिक अध्ययन का केंद्र है। मत्तूर व होशाली को 1512 में विजयनगर के महाराजा ने लोगों को उपहार दिया था। संस्कृत गांव के नाम से विख्यात मत्तूर अब तक 30 से अधिक संस्कृत के प्रोफेसर तैयार कर चुका है, जो कर्नाटक के विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ा रहे हैं। मत्तूर के साथ ही होशाली गममा कला के संरक्षण के लिए भी जाने जाते हैं। गमका गायन और कथावाचन की खास कला है। मत्तूर में परंपरागत रूप से संकेती ब्राह्मण रहते आए है, लेकिन अब मुस्लिम, लंबानी और पिछड़ी जातियों के लोग भी यहां रहते हैं।

मैसूर में है अर्थशास्त्र की पांडुलिपि

आज चाणक्य नीति की चर्चा बहुत होती है। किसी भी सटीक योजना को हम चाणक्य नीति का नाम दे देते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं चाणक्य के अर्थशास्त्र की मूल प्रति या पांडुलिपि कहां है। हम आपको बताते हैं कि इसे मैसूर के ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट में रखा हुआ है। इस संस्थान की स्थापना 1891 में मैसूर ओरियंटल लाइब्रेरी के रूप में हुई थी। तब यहां पर हजारों की संख्या में भोजपत्र पर संस्कृत में लिखी हुई, पांडुलिपियां थीं। यहां के लाइब्रेरियन शमशास्त्री रोज इन पांडुलिपियों की जांच करते और उन्हें पढ़ते थे, ताकि वे उनको सही क्रम में सही जगह पर लगा सकें। पांडुलिपियों के इस ढेर में से 1905 में उन्हें अर्थशास्त्र की पांडुलिपि मिली। उन्होंने 1909 में इसका लिप्यांतरण व संपादन करके इसे संस्कृत में प्रकाशित किया। 1915 में इसका अंग्रेजी अनुवाद आया। अर्थशास्त्र की मूल पांडुलिपि ग्रंथ लिपि में है। इस पांडुलिपि को तंजोर के एक पुजारी ने लाइब्रेरी को सौंपा था।

यहीं बनता है आधिकारिक राष्ट्र ध्वज

जबसे नवीन जिंदल ने आम लोगों को राष्ट्रीय ध्वज फहराने का अधिकार दिलाया है, तबसे अनेक तरह के ध्वज बाजार में मिलने लगे हैं। जिनमें प्लास्टिक से लेकर सिंथेटिक कपड़े का इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन, हम आपको बता दें कि आधिकारिक ध्वज सिर्फ खादी का होता है और इसको बनाने का अधिकार सिर्फ कर्नाटक खादी ग्रामोद्योग संयुक्त संघ के पास है। हुबली शहर के बेंगारी में स्थित ग्रामोद्योग संघ ही पूरे देश में इसकी आपूर्ति करता है।

पहला निजी रेडियो था रेडियो सिटी बंगलौर

आज अनेक छोटे-बड़े शहरों में निजी एमएम रेडियो स्टेशन हैं। अनेक कम्युनिटी रेडियो भी काम कर रहे हैं। लेकिन, एक वक्त ऐसा भी था, जब देश में आकाशवाणी ही रेडियो का प्रसारण करता था। लेिकन क्या आप जानते हैं कि देश का पहला निजी रेडियो स्टेशन कहां और कब शुरू हुआ था? देश का पहला निजी रेडियो स्टेशन बंगलौर का रेडियो सिटी 91.1 एफएम था। यह 2001 में शुरू हुआ था।

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