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केजरीवाल क्या फिर से हासिल कर पाएंगे ट्रांसफर पोस्टिंग के अधिकार? क्या विकल्प हैं उनके पास?

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार का केंद्र से टकराव बढ़ता जा रहा है। एक समय जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसा लग रहा था कि शायद अब मामला शांत हो जाएगा, केंद्र ने 19 मई को अध्यादेश जारी करके मामले को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले की स्थिति में ला दिया। केंद्र के अध्यादेश के बाद केजरीवाल व उनकी आम आदमी पार्टी का गुस्सा सातवें आसमान पर है। उन्होंने एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपशब्द कहने शुरू कर दिए हैं और अध्यादेश के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम शुरू कर दी है। केजरीवाल की कोशिश है कि राज्य सभा में जब इस अध्यादेश के बदले बिल आएगा तो वहां उसे पास न होने दें। हम आपको इस अध्यादेश से पहले के कुछ घटनाक्रमों के बारे में बताते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही केजरीवाल ने जिस अंदाज में अधिकारियों को धमकाया और उन्हें दंडित करने की बात कही, वह असल में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना के खिलाफ थी। क्योंकि, कोर्ट ने चुनी हुई सरकार को ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार अपने काम को सहज बनाने के लिए दिया था, न कि अधिकारियों को प्रताड़ित करने के लिए। केंद्र के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला हार से कम नहीं था, लेकिन वह तब मन मसोस कर रह गई थी। क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट के फैसले को तत्काल बदलना उसके लिए नैतिक तौर पर ठीक नहीं था, लेकिन केजरीवाल ने जब नैतिकता की सीमाएं खुद ही लांघ दी तो केंद्र के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को खारिज करना काफी आसान हो गया और उसे एक नैतिक आधार भी मिल गया। असल में दिल्ली सरकार को सबसे अच्छी सलाह अगर किसी ने दी थी तो वह कांग्रेस नेता अजय माकन थे। उन्होंने केजरीवाल सरकार को शीला दीक्षित के कदमों पर चलने को कहा था। शीला दीक्षित के 15 साल के कार्यकाल में पांच साल केंद्र में भाजपा की सरकार रही, लेकिन उनका कभी केंद्र से कोई टकराव नहीं हुआ। शीला को दिल्ली सरकार की सीमाओं का पूरी तरह से ज्ञान था और उन्होंने कभी उसका अतिक्रमण नहीं किया, चाहे केंद्र में भाजपा की सरकार रही हो या फिर उनकी अपनी पार्टी कांग्रेस की। केजरीवाल ने अपने पहले कार्यकाल से ही केंद्र से टकराव की नीति अपनाई। एक बात और मोदी विरोध के नाम पर कांग्रेस केजरीवाल के साथ खड़ी हो गई है। हो सकता है कि उसने विपक्षी एकता दिखाने की खातिर ऐसा किया हो, लेकिन कांग्रेस को एक बात समझनी होगी कि केजरीवाल की पार्टी का अगर कहीं भी विस्तार हुआ है तो वह कांग्रेस की कीमत पर ही हुआ है। अगर कांग्रेस को दिल्ली और पंजाब में अपनी जमीन पानी है तो उसे सबसे पहले आप को ही रिप्लेस करना होगा। दूसरी बात, दिल्ली सरकार का जो ढांचा है, वह खुद कांग्र्रेस का बनाया हुआ है, जिसमें उपराज्यपाल को सरकार पर अंकुश रखने का अधिकार मिला हुआ है। यही नहीं कांग्रेस की शीला सरकार ने यह दिखाया भी है कि इस मॉडल में काम हो सकता है। ऐसे में केजरीवाल के अहंकार को कांग्रेस का समर्थन कहीं न कहीं उसे ही नुकसान पहुंचाएगा। कर्नाटक की जीत के बाद तो कांग्रेस को वैसे भी उन राज्यों में अपना विस्तार करना चाहिए, जहां हाल फिलहाल तक उसकी सरकारें रहीं है, क्योंकि देश में अगर विपक्ष के नाम पर कोई सर्वाधिक विश्वसनीय चेहरा है तो वह कांग्रेस ही है। जहां पर भी मतदाताओं को महसूस होगा कि कांग्रेस ही भाजपा से सीधे मुकाबले में है, वहां पर मुस्लिमों सहित सभी भाजपा विरोधी कांग्रेस के साथ आ जाएंगे। दिल्ली व पंजाब दो ऐसे राज्य हैं, जहां निवर्तमान सरकारें कांग्रेस की थीं और आज इन दोनों ही जगहों पर आम आदमी पार्टी काबिज है।

आपको बता दें कि केंद्र सरकार ने अध्यादेश भले ही जारी कर दिया हो, लेकिन वह सुप्रीम कोर्ट से टकराव नहीं लेना चाहती, यही वजह है कि उसने कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की है। यहीं नहीं अध्यादेश में भी ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए दिल्ली में मुख्यमंत्री, मुख्यसचिव व केंद्रीय गृह सचिव की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय कमेटी का प्रावधान किया गया है। ताकि, ट्रांसफर पोस्टिंग में चुनी हुई सरकार के मुखिया की राय भी शामिल हो। अब देखना यह है कि ग्रीष्मकालीन अवकाश के बाद सुप्रीम कोर्ट क्या करता है?

अब अगर केंद्र को इस अध्यादेश के बदले बिल लाना पड़ा तो उसके सामने लोकसभा में तो कोई चुनौती होगी ही नहीं, क्योंकि वहां उसे पूर्ण बहुमत हासिल है। राज्य सभा में अधिकतम 250 सदस्य होते हैं, जिनमें 238 राज्यों में चुनाव आते हैं, जबकि 12 को विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धियों के लिए राष्ट्रपति मनोनीत करते हैं। इस समय राज्य सभा में 238 सदस्य हैं। राज्य सभा में भाजपा व समर्थकों के सिर्फ 110 सदस्य हैं। दो मनोनीत सदस्यों के पद खाली हैं, जिन्हें सरकार इस बिल पर वोटिंग से पहले मनोनीत करा सकती है। ऐसे में सदन के सदस्यों की संख्या 240 हो जाएगी और भाजपा के 112 सदस्य हो जाएंगे। ऐसे में बहुमत के लिए 121 सदस्यों के समर्थन की दरकार होगी। यानी भाजपा को कम से कम 9 और सदस्यों का समर्थन जुटाना होगा। आपको बता दें कि इस गणित में सबसे अहम भूमिका बीजद और वायएसआर कांग्रेस की होने जा रही है। ये दोनों वे दल हैं, जो कोई भी फैसला स्वतंत्र रूप से करते हैं। इन दाेनो दलों के नौ-नौ सदस्य हैं। यानी केजरीवाल और भाजपा में जिस भी दल को ये समर्थन देंगे, वही जीतेगा। यह भी हो सकता है कि वे किसी विवाद में पड़ने की जगह वोटिंग से अलग भी रह सकते हैं और ऐसे में बहुमत का आंकड़ा सिर्फ 111 रह जाएगा और सरकार की जीत हो जाएगी। आम आदमी पार्टी केंद्र के अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकती है, लेकिन वहां से उसे जल्द राहत नहीं मिलेगी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट भी जानता है कि केंद्र अगर विधेयक को संसद से पारित करा लेता है तो एक बार फिर उसकी किरकिरी हो सकती है। ऐसे में केजरीवाल शोर भले ही मचा लें, लेकिन उनके पास बहुत विकल्प नहीं हैं। बेहतर तो यह होता कि वे शीला सरकार की तरह एलजी से तालमेल बिठाकर कार्य करते।

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