संजय गांधी के बारे में क्या ये बातें जानते हैं आप?
संजय गांधी को भारतीय राजनीति में हमेशा ही एक खलनायक के रूप में पेश किया जाता रहा है। लेकिन, भारत जैसे देश में उनके जैसे कठोर प्रशासक की कमी कई बार खलती है। उनके बारे में इतनी नकारात्मक बातें प्रचारित हुईं, जिससे उनका सकारात्मक पहलू कभी सामने ही नहीं आया। 14 दिसंबर 1946 को पैदा हुए संजय इंदिरा गांधी के छोटे बेटे थे। दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल के साथ ही देहरादून के वेलहम बॉयज स्कूल और दून स्कूल से पढ़े संजय साहसी नहीं, बल्कि दुस्साहसी प्रवृत्ति के थे और इसी दुस्साहस ने असमय ही उनकी जान भी ले ली। संजय कभी विश्वविद्यालय में पढ़ने नहीं गए, लेकिन उन्होंने ऑटोमोटिव इंजीनियरिंग को अपना कैरियर चुना और तीन साल तक इंग्लैंड के क्रीव में रॉल्स रॉयस में अप्रेंटिस भी की। उनकी स्पोर्ट्स कारों में अत्यधिक रुचि थी और उन्होंने 1976 में पायलट का लाइसेंस भी हासिल कर लिया था। उनकी रुचि हवाई करतबबाजी में थी और उन्होंने इसमें कई पुरस्कार भी हासिल किए थे।
भारत में आम आदमी को कार का सपना अगर किसी ने दिखाया तो वह संजय गांधी ही थे। उनके कहने पर ही इंदिरा गांधी की सरकार ने 1971 में “लोगों की कार” का प्रस्ताव पारित किया। यह देश में बनी ऐसी कार का प्रस्ताव था, जिसे मध्यम वर्ग भी खरीद सके। जून 1971 में मारुति मोटर्स लिमिटेड की स्थापना हुई और संजय गांधी इसके मैनेजिंग डायरेक्टर यानी एमडी बन गए। संजय ने रॉल्स रॉयस में अप्रेंटिस जरूर की थी, लेकिन उन्हें कार के डिजाइन और उत्पादन का कोई अनुभव नहीं था। उनको न कार बनाने का एक्सक्लूसिव लाइसेंस दे दिया गया। हालांकि श्रीमती गांधी के इस फैसले की व्यापक आलोचना हुई। संजय गांधी ने कार के नाम पर बस एक मॉडल भर तैयार किया। लेकिन, बांग्लादेश का युद्ध जीतने के बाद यह आलोचना कहीं दबकर रह गई। इसके बाद संजय गांधी ने कार के संयुक्त रूप से निर्माण के लिए जर्मन कंपनी फॉक्सवैगन से बात चलाई। इस बीच इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित कर दिया और संजय उसमें व्यस्त हो गए। 23 जून 1980 को विमान हादसे में संजय की मौत हो गई। इसके बाद इंदिरा ने मारुति लिमिटेड को बचाने के लिए सुजकी से बात की और सुजकी ने मारुति के साथ मिलकर संयुक्त रूप सुजुकी के मॉडल 796 को भारत में बनाय और इस प्रकार से देश को अपनी पहली आम आदमी की कार मिली। तमाम आलोचना के बावजूद एक बात तो सच है कि संजय ने ही मध्यम वर्ग को कार का सपना दिखाया, जो भले ही उनके रहते सच नहीं हो सका।
25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू होने के साथ ही नेताओं की गिरफ्तारी और प्रेस पर सेंसरशिप जैसे अनेक कड़े प्रावधान लागू कर दिए गए। यह वह दौर था, जब संजय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सबसे बड़े सलाहकार बन गए। सरकार के कई विश्वस्त लोगों द्वारा इंदिरा का साथ छोड़ने की वजह से बिना किसी पद के भी सरकार और संगठन में संजय का कद बहुत ऊंचा हो गया। लोगों का कहना है कि एक तरह उस समय सरकार की कमान पूरी तरह से संजय गांधी के हाथ में आ गई। कहा जाने लगा कि सरकार पीएमओ यानी प्रधानमंत्री कार्यालय से नहीं बल्कि पीएमएच यानी प्रधानमंत्री आवास से चल रही है। हालात यह थे कि संजय और उनके साथी उस व्यक्ति को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, जो इंदिरा गांधी के खिलाफ आवाज उठाता था। आपातकाल में जनता को लुभाने के लिए, जब इंदिरा ने 20 सूत्री कार्यक्रम शुरू किया तो संजय ने भी अपना पांच सूत्री कार्यक्रम पेश कर दिया। इसमें शिक्षा, पर्यावरण, जाति का निर्मूलन, दहेज की समाप्ति और परिवार नियोजन शामिल था। ये पांच ऐसे कार्यक्रम थे, जिन्हें अगर उस समय सही से लागू कर दिया जाता तो आज देश की स्थिति कुछ अलग हो सकती थी। ये कार्यक्रम संजय की दूरदर्शिता को दिखाते हैं। नसबंदी लागू करने को लेकर भले की उनकी कितनी आलोचना हो, लेकिन परिवार नियोजन की शायद देश को आज भी उतनी ही जरूरत है, विशेषकर उस हालात में जब हम दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले देश बन गए हैं।
संजय गांधी के सरकार में दखल से आजिज कई मंत्रियों ने तो इस्तीफा भी दे दिया था। लेकिन संजय पर इसका कोई असर नहीं पड़ता था, बल्कि उनकी मर्जी से ही संबंधित मंत्री का उत्तराधिकारी भी तय हो जाता। उदाहरण के लिए जब संजय ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के कामकाज में दखल देना शुरू किया तो तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने इस्तीफा दे दिया, जिसके बाद संजय ने अपने खास विद्याचरण शुक्ल को विभाग का मंत्री बना दिया। उस समय जिन-जिन लोगों को संजय लाए, जो संजय के साथ थे, उनको लेकर तमाम प्रतिकूल बातें होती थीं, लेकिन संजय के साथ रहे तमाम लोग बाद में सफल राजनेता बने और उन्होंने साबित किया कि संजय का चयन सही था, फिर वे चाहे विद्याबाबू, बंसीलाल या गुलाम नबी आजाद ही क्यों न रहे हों। शायद संजय के भाग्य में किसी पद पर रहना नहीं था, क्योंकि मई 1980 में वह पहली बार कांग्रेस के महासचिव बने और अगले ही महीने उनकी मौत हो गई।
हाल में रिलीज केरला स्टोरी सहित अनेक फिल्मों पर पिछले दिनों बवाल हो चुका है, लेकिन फिल्मों को लेकर राजनीतिक बवाल कोई नई बात नहीं है। इस क्रम में संजय से जुड़ा एक और चर्चित किस्सा अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का से जुड़ा हुआ है। नाहटा ने संजय और इंदिरा पर निशाना साधते हुए कल्पित पात्रों के साथ इस फिल्म को बनाया था। इस फिल्म में इंदिरा व संजय के साथ ही आर.के. धवन, धीरेंद्र ब्रह्मचारी और संजय की खास रुखसाना सुल्तान यानी अमृता सिंह की मां पर भी निशाना साधा गया था। जब यह फिल्म सेंसर बोर्ड के पास पहुंची तो सात सदस्यीय समीक्षा कमेटी ने इसे सरकार को वापस भेज दिया और सरकार ने 51 आपत्तियां लगाते हुए उसे निर्माता को वापस भेज दिया। 11 जुलाई 1975 को नाहटा ने अपने जवाब में कहा कि फिल्म के सभी चरित्र काल्पनिक हैं और उनका किसी दल से कोई लेना-देना नहीं है। नाहटा के जवाब के कुछ दिनों के बाद ही आपातकाल घोषित हो गया और इस फिल्म के मास्टर प्रिंट सहित सभी प्रिंटों को उठाकर गुड़गांव में मारुति की फैक्टरी में लाकर जला दिया गया और इस तरह से किस्सा कुर्सी का हमेशा के लिए खत्म हो गया। 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने आपातकाल के अत्याचारों की जांच के लिए शाह कमीशन का गठन किया, जिसने विद्याचरण शुक्ल और संजय को इस फिल्म के नेगेटिव जलाने का दोषी पाया। 11 महीने चली सुनवाई के बाद तीस हजारी कोर्ट के जिला जज ओ.एन. वोहरा ने 27 फरवरी 1979 को संजय और विद्या बाबू को दोषी मानते हुए 23 माह कैद की सजा सुनाई। संजय को जमानत भी नहीं मिली। हालांकि बाद में अदालत ने इस फैसले को पलट दिया।
एक और किस्सा जामा मस्जिद को लेकर है। हुआ यूं कि 13 अप्रैल 1976 को संजय और बृजवर्धन दिल्ली विकास प्राधिकरण के तत्कालीन उपाध्यक्ष जगमोहन को साथ लेकर तुर्कमान गेट पर पहुंचे। वहां पर झुग्गियों और अवैध निर्माण की वजह से विशाल जामा मस्जिद नजर ही नहीं आ रही थी, उन्होंने डीडीए को तत्काल अतिक्रमण पर बुलडोजर चलाने को कहा। भारी विरोध के बाद पुलिस बल का प्रयोग करते हुए इस अतिक्रमण को तो हटा दिया गया,लेकिन पुलिस की फायरिंग में कम से कम 150 लोगों की जान चली गई। संजय ने 24 सितंबर 1974 को अपने से 10 साल छोटी मेनका आनंद से शादी की थी। संजय के बेटे वरुण का जन्म उनकी मौत से कुछ समय पहले ही हुआ था। संजय का दुस्साहस ही उनकी जान ले बैठा। वह विमान उड़ाने के लिए कुर्ता पायजामा और कोल्हापुरी चप्पलें पहन कर जाते थे और अत्यंत ही कम ऊंचाई पर खतरनाक करतब करते थे। 23 जून 1980 को दिल्ली के सफदरजंग एयरपोर्ट से उन्होंने दिल्ली फ्लाइंग क्लब के एक नए विमान से उड़ान भरी और करतब दिखाते समय विमान से उनका नियंत्रण छूट गया और विमान हादसे का शिकार हो गया। संजय की मौके पर ही मौत हो गई। संजय का शव इतनी बुरी तरह से क्षत विक्षत हो गया था कि आठ सर्जनों को उनके शरीर पर टांके लगाने में चार घंटे से भी अधिक का समय लगा। मेनका के मुताबिक संजय अपने बेटे को उसके दादा फिरोज के पारसी धर्म में ही बड़ा करना चाहते थे।