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क्या राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का संकट वास्तव में खत्म हो गया है?

कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव से पहले राजस्‍थान और छत्‍तीसगढ़ में लंबे समय से असंतुष्‍ट चल सचिन पायलट और टी.के. सिंहदेव को मनाने में सफलता हासिल कर ली। ये दोनों नेता पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद मुख्‍यमंत्री का पद न मिलने की वजह से नाराज थे। लेकिन, कांग्रेस हाईकमान ने इनको मनाने के लिए चुनाव से महज पांच महीने पहले कवायद शुरू की। पायलट को हालांकि अभी सीधे-सीधे कुछ मिला नहीं है, लेकिन उन्‍होंने शायद अपने समर्थकों को टिकट देने की शर्त पर नाराजगी को छोड़ दिया है। जबकि सिंहदेव को उपमुख्‍यमंत्री का दर्जा देकर मनाया गया है।
सबसे पहले बात करते हैं सचिन पायलट की। पिछले कुछ समय से सचिन व राजस्‍थान के मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत के संबंधों में जिस तरह की कटुता आई है, वह असानी से खत्‍म होगी, यह सोचना गलत होगा। गहलोत ने सचिन को लेकर जिस तरह की अपमानजनक टिप्‍पणियां कीं, वे आसानी से भुलाई जा सकती हैं, ऐसा नहीं है। सचिन ने भी गहलोत के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोला था, इसलिए गहलोत राजस्‍थान की राजनीति में पायलट को मजबूत होने देंगे, ऐसी उम्‍मीद करना भी नादानी होगी। फिर पायलट के मान जाने से क्‍या कांग्रेस को फायदा होगा, यह सवाल सबसे महत्‍वपूर्ण है।

असल में कांग्रेस चुनाव से पहले नेतृत्‍व बदलकर पंजाब में तगड़ी चोट खा चुकी है, इसलिए वह किसी अन्‍य राज्‍य में ऐसी गलती दोहराना नहीं चाहती। हालांकि पिछले साल गहलोत को कांग्रेस अध्‍यक्ष बनाकर पार्टी ऐसी कोशिश में थी, लेकिन गहलोत ने हाईकमान को खुली चुनौती देकर अपनी कुर्सी बचा ली। गहलोत की ताकत देकर हाईकमान को समझ में आ गया कि उनसे पंगा लेना, राजस्‍थान में पार्टी के लिए ठीक नहीं होगा। वहीं मुख्‍यमंत्री पद पाने की आस लगाए सचिन पायलट हर दिन बीतने के साथ ही बेचैन होते रहे और उन्‍होंने भी हाईकमान को सीधी तो नहीं पर परोक्ष तौर पर कई बार धमकाने की कोशिश की। अंतर यह रहा कि गहलोत की ताकत से जहां हाईकमान सहमा रहा, वहीं पायलट को आगाह करने में पार्टी ने कोई कमी नहीं छोड़ी। जब पायलट को समझ में आ गया कि अब उनकी दाल नहीं गलने वाली तो अब उन्‍होंने हथियार डाल दिए और हाईकमान के कहने पर समझौता कर लिया। लेकिन, गहलोत और पायलट दोनों को ही पता है कि चुनाव परिणाम कुछ भी हो, चुनाव के बाद कांग्रेस में उसकी ही चलेगी, जिसके पास अधिक विधायक होंगे। इसीलिए चुनाव से पहले दोनों ही कोशिश करेंगे कि उनके अधिक से अधिक समर्थकों को टिकट मिल जाए। एक बार टिकट घोषित हो गए तो दोनों नेता एक दूसरे को कमजोर करने की कोई कोशिश नहीं करेंगे, इसमें संदेह है। असल में राजस्‍थान में कांग्रेस की राजनीति का नया फार्मूला तो यही है न पायलट कमजोर = गहलोत मजबूत व गहलोत कमजोर = पायलट मजबूत।

जहां तक छत्‍तीसगढ़ का सवाल है, तो टी.के. सिंहदेव या टी.एस. बाबा सरगुजा के महाराज हैं और एक बेहद ही शालीन राजनेता हैं। तीन बार से अंबिकापुर सीट का प्रतिनिधित्‍व कर रहे सिंहदेव का अपने इलाके में अच्‍छा प्रभाव है, लेकिन पूरे राज्‍य में पहचान होने के बावजूद हर वर्ग पर उनकी पकड़ उतनी मजबूत नहीं है। 2018 में जीत के बाद से वह अपने रसूख के दम पर मुख्‍यमंत्री पद की दावेदारी कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने भूपेश बघेल को तरजीह दी और उन्‍हें मुख्‍यमंत्री बना दिया। भूपेश की छवि जनता के नेता की है और वे हर तरह की चुनावी तिकड़मों के माहिर हैं। जनजातीय बहुल छत्‍तीसगढ़ में ऊंची जातियों के वोट साधने की नीयत से कांग्रेस ने टीएस बाबा को उपमुख्‍यमंत्री बनाया है। चुनाव से ठीक पहले इस कदम से कांग्रेस को कितना लाभ होगा, कहा नहीं जा सकता। लेकिन, अगर टीएस बाबा को उपमुख्‍यमंत्री बनाना ही था तो यह काम काफी पहले हो सकता था, जिससे कांग्र्रेस को निश्‍चित ही लाभ होता। चुनाव से ठीक पहले इस फैसले से एक लाभ जरूर होगा कि पार्टी के नेताओं और मतदाताओं के बीच यह स्‍पष्‍टता रहेगी कि बघेल ही अगले मुख्‍यमंत्री के दावेदार हैं।

राजस्‍थान के विपरीत छत्‍तीगढ़ में भूपेश के सामने टीएस बाब की चुनौती पायलट की तरह नहीं है। बाबा अत्‍यंत शालीन है और बहुत ऐसी महत्‍वाकांक्षा भी नहीं रखते हैं कि वे पद पाने के लिए किसी भी हद तक चले जाएं। वहीं बघेल एक चतुर राजनेता है और अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में उन्‍होंने बेहतर काम भी किया है। भाजपा की रमन सिंह सरकार की तुलना में उन्‍होंने समाज के निचले वर्ग को साधने के लिए अधिक काम किया है। साथ ही बघेल ने कांग्रेस हाईकमान को भी हमेशा खुश रखा है। इसलिए उनके सामने अपने नेतृत्‍व को लेकर कोई बड़ा संकट नहीं है।

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