
2014 में अपनी जीत के बाद से नरेंद्र मोदी को राज के समय से विरासत में मिले एलीट वर्ग ने संदेह की अलग-अलग निगाहों से देखा है. सामाजिक तिरस्कार के अलावा, तीन बार के प्रधानमंत्री की राजनीति से उनकी दूरी अक्सर इस अफसोस के रूप में सामने आई है कि यह वह भारत नहीं है जिसमें मैं पला-बढ़ा हूं. वे गलत नहीं हैं. पिछले 11 वर्षों में जो देश फिर से बनाया गया है, वह न केवल अलग है, बल्कि पहचान में भी नहीं आता. यह रूपांतरण 22 अप्रैल को पहलगाम नरसंहार और 12 मई की शाम प्रधानमंत्री मोदी के 22 मिनट के राष्ट्र के नाम संबोधन के बीच की छोटी अवधि में स्पष्ट रूप से देखा गया. इन लगभग 20 दिनों में एक ऐसे जनमानस की शक्ति सामने आई है, जिसने कठिन रास्ते से यह सीख लिया है कि दरियादिली और उदारता हमेशा लाभकारी नहीं होतीं, विशेषकर जब सामने वाला पड़ोसी धूर्त हो.
यह बदलाव रातों-रात नहीं हुआ है, न ही सिर्फ इसलिए हुआ है कि चार दिवसीय ऑपरेशन सिंदूर ने पाकिस्तान को नए भारत की क्षमताओं की एक झलक दी. 1971 में ढाका में आत्मसमर्पण और देश के विघटन की जो बेइज्जती पाकिस्तान ने सही, वह आज भी उसकी सामूहिक स्मृति में गहरी छपी हुई है.
लेकिन इस अपमान से सबक लेने के बजाय, पाकिस्तान ने इसे प्रतिशोध और बदले का प्रतीक बना लिया. जनरल ज़िया-उल-हक़ ने हज़ार ज़ख्मों की जंग को राष्ट्रीय नीति का रूप दिया और इस्लामी विजयोत्सव की भावना ने पिछले पाँच दशकों में भारत के खिलाफ इस्लामाबाद की घोषित-अघोषित जंग की रूपरेखा तय की. दुर्भाग्य से, भारत की प्रतिक्रिया हमेशा असंगत रही है और उसकी एक बड़ी वजह एक दोषपूर्ण आत्मछवि रही है—एक संत जैसे देश की.
पहला, यह अव्यक्त और रोमांटिक धारणा रही है कि भारत और पाकिस्तान अलग हुए भाई हैं. यह विश्वास इस समझ पर आधारित है कि विभाजन एक अस्थायी राजनीतिक विफलता का परिणाम था और इसे रोका जा सकता था. लेकिन जो लोग साझा विरासत और सांस्कृतिक समानताओं की दुहाई देते हैं, वे भूल जाते हैं कि सात दशकों के बाद पाकिस्तान की राष्ट्रीय पहचान एक बिल्कुल अलग दिशा में बढ़ चुकी है. पाकिस्तान का विचार भारत की सभ्यतागत सोच से अलग है. सीधी भाषा में कहें तो हम अलग लोग हैं. वाघा सीमा पर मोमबत्तियाँ जलाने वाले इस सच्चाई को जितना नकारते हैं, पाकिस्तान उतना ही दो राष्ट्र सिद्धांत की स्थायीत्व और भिन्नता को उजागर करता है.
प्रधानमंत्री मोदी का कहना है: ऑपरेशन सिंदूर अब भारत की आतंकवाद विरोधी नीति है.
दूसरा, भारत के कई नेताओं—जिनमें इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे निर्विवाद राष्ट्रवादी भी शामिल हैं—का मानना था कि अंततः लोकतंत्र और आर्थिक प्रगति की चाह इस्लामी कट्टरता पर भारी पड़ेगी. 1972 का शिमला समझौता और 1999 की लाहौर बस यात्रा इसी सोच के परिणाम थे. यहां तक कि एक दशक पहले मोदी द्वारा नवाज़ शरीफ़ के पारिवारिक समारोह में अचानक जाना भी इसी दृष्टिकोण से प्रेरित था. दुर्भाग्यवश, पाकिस्तान की “डीप स्टेट” की हमेशा अलग योजनाएं रही हैं.
इसके साथ यह भी विश्वास लंबे समय तक भारत की रणनीतिक सोच में मौजूद रहा कि हमारे राष्ट्रीय हित एक एकजुट पाकिस्तान में निहित हैं. पूर्व राजनयिक चंद्रशेखर दासगुप्ता ने अपनी किताब India and the Bangladesh Liberation War में चौंकाने वाला तथ्य उजागर किया कि भारत ने 26 मार्च 1971 को ऑपरेशन सर्चलाइट के बाद भी एकीकृत पाकिस्तान की सोच नहीं छोड़ी थी. अंततः घटनाओं की अनिवार्यता और इंदिरा गांधी की मंजूरी से भारत की पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य भागीदारी की राह खुली.
आखिरकार, 1998 में परमाणु शक्ति बनने के बाद से पाकिस्तान इस सोच पर चल रहा है कि पारंपरिक युद्ध में भारत से मिली किसी भी हार को परमाणु हमले की धमकी देकर संतुलित किया जा सकता है. इससे वैश्विक भय पैदा होगा और भारत पर युद्ध रोकने का दबाव पड़ेगा. साथ ही, इस्लामाबाद ने यह प्रचार भी किया है कि अगर पाकिस्तान अस्थिर हुआ, तो उसके परमाणु हथियार जिहादियों के हाथ लग सकते हैं—जो मौकापरस्त इस्लामिस्टों की तुलना में कहीं अधिक खतरनाक माने जाते हैं.
मोदी का 12 मई का भाषण, जिसमें वीज़ा रद्द करने और सिंधु जल संधि को होल्ड पर डालने जैसे पूर्ववर्ती निर्णयों की पृष्ठभूमि है, ने द्विपक्षीय संबंधों में नए मानदंड तय करने का वादा किया है.
सबसे पहले, मोदी सिद्धांत के अनुसार भविष्य में कोई भी आतंकी हमला युद्ध की कार्रवाई माना जाएगा, और उसी के अनुरूप सैन्य प्रतिकार होगा—तेजी से बढ़ती तीव्रता के साथ. प्रधानमंत्री ने साफ कहा कि व्यापार या क्रिकेट के लाभ या बंटे हुए परिवारों की भावनाएं अब भारत को रोकेंगी नहीं. जब तक सिद्ध नहीं हो जाता, पाकिस्तान स्थायी शत्रु बना रहेगा.
इस सिद्धांत में पाकिस्तान की एकता और उसके परमाणु ब्लैकमेल से जुड़ी कुछ बातें स्पष्ट रूप से नहीं कही गई हैं, लेकिन भारत की इस दोहराई गई नीति से अनुमान लगाया जा सकता है कि हम किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप को नहीं स्वीकारते.
तुर्की के प्रति असंतोष के संकेतों की तरह, दिल्ली ने यह भी संकेत दिया है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आर्थिक साधनों का उपयोग करेगी. बलूचिस्तान के अलगाववादियों और ड्यूरंड रेखा से असहज लोगों को भी यह सूक्ष्म लेकिन स्पष्ट संदेश दिया गया है कि भारत की भविष्य की नीतियाँ अब बीते दौर की धारणाओं पर आधारित नहीं होंगी.
बहुत लंबे समय तक भारत की आत्म-छवि गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी से प्रेरित रही है. मोदी ने यह स्पष्ट किया है कि अब राष्ट्र की पहचान को नए वैकल्पिक परंपराओं के आधार पर पुनः परिभाषित किया जाएगा.