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कर्नाटक के नतीजों से साफ है कि भाजपा को अपनी रणनीति की सर्जरी की जरूरत

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए एक वेकअप कॉल है। नतीजों से एक बात साफ हैं कि भाजपा बुरी तरह से हारी है, जैसी चुनाव प्रचार शुरू होने के पहले से ही उम्मीद की जा रही थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र माेदी का धुआंधार अौर प्रभावी प्रचार भी भाजपा की बुरी गत बनने से नहीं रोक सका। साफ है कि मोदी एक स्तर तक ही किसी मौजूदा सरकार के खिलाफ बने माहौल को भाजपा के पक्ष में कर सकते हैं। कर्नाटक में सरकार के खिलाफ अाम लोगों में काफी नाराजगी थी अाैर वे उसे हर हाल में हटाना चाहते थे। यही बात कांग्रेस  के पक्ष में गई और उसे जबरदस्त जीत हासिल हुई। साथ ही कांग्रेस लोगों तक यह बात पहुंचाने में सफल रही कि बासवराव बोम्मई की सरकार एक भ्रष्ट और नाकारा सरकार थी। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का भी परिणामों पर असर साफ दिखा और जहां-जहां से राहुल की यात्रा गुजरी वहां की 80 फीसदी से अधिक सीटें कांग्रेस के हिस्से में आईं। राेचक तथ्य यह रहा कि इन इलाकों में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली। लोगों ने एचडी कुमारस्वामी की सौदेबाजी को भी नापसंद किया और उसे भी हाशिए पर पहुंचा दिया। कुल मिलाकर यह चुनाव राहुल गांधी का उत्साह बढ़ाने वाला रहा और राहुल ने जिस तरह से यहां पर मेहनत की यह उसका भी परिणाम रहा।

भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व राज्य सरकार के खिलाफ बने माहौल को भांपने में पूरी तरह विफल रहा। जब राहुल भारत जोड़ाे यात्रा निकाल रहे थे, उस समय कर्नाटक में उन्हें जबरदस्त समर्थन मिला था। लेकिन, भाजपा ने इसे नजरअंदाज किया। अगर उसी समय भाजपा सचेत हो जाती व लोगों की नब्ज टटोल कर अपनी गलतियों को सुधारने की कोशिश करती तो शायद हालात कुछ बेहतर हो सकते थे। कर्नाटक में अब सांप निकल चुका है और लाठी पीटने से शायद ही कोई लाभ हो। भाजपा के सामने अगली चुनौती छह माह बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश आैर छत्तीसगढ़ में आने वाली है। जबकि अगले साल मई में तो प्रधानमंत्री मोदी को खुद लोकसभा चुनाव की महाचुनौती का सामना करना है। केंद्र का रिपोर्ट कार्ड भले ही कितना अच्छा हो, लेकिन जहां पर भाजपा सत्ता में हैं, वहां मौजूद सरकारों के काम असर लोकसभा चुनाव पर तो पड़ना तय है। अगर हम भाजपा के संकट वाले राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश में भाजपा के सामने बड़ी चुनौती है। वहां पर शिवराज सिंह चौहान अब उस तरह से लोकप्रिय नहीं हैं, जैसा 2013 तक थे। यही वजह थी कि भाजपा को 2018 में जनता ने सत्ता से बेदखल कर दिया था। भले ही भाजपा ने कांग्रेस के अंतर्विरोध का फायदा उठाकर जोड़तोड़ करके सत्ता में वापसी कर ली हो, लेकिन वह पब्लिक च्वाइस तो नहीं थी। शिवराज सिंह चौहान लंबे समय से एक साल को छोड़कर लगातार सत्ता में हैं और इस वजह से उनके काम में जनता को कोई भी नयापन नजर नहीं आता है। खुद मुख्यमंत्री के साथ अनेक लोग ऐसे है, जिन पर अनेक आरोप हैं। राज्य के लाेग कुछ नया चाहते हैं। इसलिए शिवराज अगले चुनाव में भाजपा को जिता पाएंगे, यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। यहां पर सवाल यह भी है कि शिवराज की जगह कौन ले सकता है, क्योंकि जिन चेहरों की अनेक बार चर्चा होती है, वे शिवराज की तरह ही ताजगी विहीन हैं। कुल मिलाकर भाजपा को अगले दो महीनों में सरकार के खिलाफ बने मुद्दों को पहचान कर उन्हें सही करना होगा, सिर्फ चेहरा बदलने से हालात बदलेंगे ऐसा कहना भी मुश्किल है। कांग्रेस की ओर से कमलनाथ चुनाव में विक्टिम कार्ड तो जरूर चलेंगे और उन्हें सहानुभूति मिलना भी तय है। दिग्विजय सिंह हमेशा की तरह चर्चा में बने ही रहेंगे। मध्य प्रदेश में भी भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है।

राजस्थान की बात करें तो वहां पर यह ही तय नहीं है कि भाजपा का चेहरा कौन होगा। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को विश्वास ही नहीं है। राज्य में सक्रिय अन्य चेहरे भी बासी से नजर आते हैं। ऐसे में भाजपा किसी अन्य चेहरे की तलाश कर रही है, लेकिन उसकी कोशिश चुनाव से पहले मोदी के चेहरे पर ही वोट मांगने की होगी। अनेक राज्यों में यह प्रयोग सफल रहा है, लेकिन सच तो यह है कि राज्य के लोगों की रुचि इस बात में रहती है कि चुनाव के बाद उनके प्रदेश को जो संभालेगा, क्या वह उनकी उम्मीदों को पूरा कर सकेगा। राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार को पूरी उम्मीद है कि उसकी वापसी हो रही है। प्रदेश में माहौल भी इसी तरह का दिख रहा है। यही वजह है कि कांग्रेस के नाराज नेता सचिन पायलट केंद्रीय नेतृत्व से अपने लिए कुछ वादा चाहते हैं और वह बागी तेवर दिखा कर इसके लिए दबाव भी बना रहे हैं। कांग्रेस चुनाव से पहले पंजाब की तरह राजस्थान में कोई गड़बड़ी नहीं चाहती है। साथ ही वह सचिन को पार्टी से खुद भी बाहर नहीं करना चाहती। सचिन पायलट की भी मजबूरी है। कांग्रेस में वह अभी जिस चीज की उम्मीद कर सकते हैं, किसी दूसरे दल में जाने पर वह उसके बारे में सोच भी नहीं सकते। कांग्रेस यह बात अच्छी तरह से जानती है, इसी कारण उनकी गतिविधियों को पार्टी नजरअंदाज कर रही है और उसे उम्मीद है कि चुनाव से पहले सचिन को कुछ ले देकर मनाया जा सकता है। इस स्थिति में भाजपा को कांग्रेस के अंतर्विरोधों से कोई बड़ा फायदा होने की उम्मीद नहीं है। कर्नाटक की जीत से भी कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं और इसका फायदा उसे राजस्थान में भी मिलेगा। इसके विपरीत राजस्थान भाजपा में कहीं अधिक अंतर्विरोध हैं। पार्टी के अलग-अलग गुट एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। भाजपा के सामने अब राजस्थान को लेकर स्पष्ट फैसला करने की चुनौती है। उसे एक ऐसा चेहरा लोगों के सामने लाना होगा, जो न केवल ताजा हो, बल्कि लोग को यह भी लगना चाहिए कि उसमें उनकी उम्मीदों को ईमानदारी से पूरा करने की क्षमता है।

छत्तीसगढ़ में भी भाजपा के हालात राजस्थान से अलग नहीं हैं। 2018 के चुनाव में जब ऊपरी तौर पर ऐसा लग रहा था कि भाजपा एक बार फिर सरकार बना सकती है, लोगों ने कांग्रेस को भारी बहुमत से सत्ता सौंप दी। डॉ. रमन सिंह ने तभी अपनी चमक खो दी थी। उनके अनेक मंत्री चुनाव हार गए थे। यहां पर भी भाजपा पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप थे। पार्टी के भीतर अंतर्विरोध इतना था कि अनेक नेताओं ने अपने ही साथियों को हराने का काम किया। राज्य में सीडी की राजनीति भी खासी चर्चित रही। आज के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की भी कई कथित सीडी जारी हुईं। लेकिन, कहते हैं न कि जब जनता बदलाव का मूड बना लेती है तो फिर वह नेताओं की व्यक्तिगत बातों को नजरअंदाज कर देती है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में अंतर्विरोध नहीं है, लेकिन पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व पूरी तरह से बघेल के साथ खड़ा है। खुद बघेल ने छत्तीसगढ़ी प्राइड से लेकर चावल पर बोनस देने जैसे अनेक एेसे काम किए है, जिनसे राज्य के एक बड़े वर्ग को फायदा हुआ है। यहां पर भी भाजपा को कोई नया चेहरा देना होगा। सवाल यहीं है कि वह कौन होगा? पिछला चुनाव पूरी तरह से रमन सिंह के चेहरे पर लड़ा गया था और भाजपा की बुरी गत बनी थी। हालांकि, छह माह बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 11 में से 9 सीटों पर जीत हासिल की थी। यानी, लोगों की नाराजगी रमन सिंह से थी मोदी से नहीं। हो सकता है कि इसी वजह से पार्टी मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़े।

राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी लोकसभा चुनाव में मोदी को प्रचंड बहुमत मिल था, इसलिए वहां भी भाजपा चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़ने की सोचेगी। लेकिन, जिस तरह से भाजपा की राज्य सरकारें काम कर रही हैं और मोदी के डबल इंजन का नारा पटरी उतरता दिख रहा है, एेसे में पार्टी को अब नई रणनीति पर काम करना हाेगा। अब अगर भाजपा के नेतृत्व वाली उन सरकारों की बात करें, जहां पर चुनाव लोकसभा चुनाव से पहले नहीं है तो हरियाणा में भाजपा के सामने बड़ी चुनौती आने वाली है। राज्य की भाजपा सरकार अत्यंत ही अलोकप्रिय हो चुकी है। उसकी गठबंधन सहयोगी जजपा भी अपनी चमक खो चुकी है। जाट वोटों के दम पर चुनाव जीती जजपा से जाट ही नाराज हैं और वे उसे अगले चुनाव में सबक सिखाने को तैयार हैं। जाटों ने भाजपा से लड़ने के लिए ही जजपा को वोट दिया था और जजपा खुद ही भाजपा से हाथ मिला बैठी, यह उसके कोर वोटरों को जरा भी पसंद नहीं आया है। सरकार पर भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई न करने के भी आरोप हैं। हरियाणा के चुनाव लोकसभा चुनाव के चार महीने के भीतर होने हैं, ऐसे में भाजपा को अभी यहां के बारे में रणनीति बनानी होगी। आपको बता दें कि हरियाणा में भी राहुल की यात्रा खासी प्रभावशाली रही थी। उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार को अभी सवा साल ही हुआ है, इसलिए सरकार के खिलाफ कोई माहौल तो नहीं है, लेकिन लोग सरकार से अपने वादों पर तेजी से काम चाहते हैं। राज्य में बाहरी लोगों खास कर मुसलमानों की बढ़ती संख्या बड़ा मुद्दा है, इसलिए हिमाचल की तर्ज पर सख्त भूकानून बनाने की मांग जोरशोर से हो रही है। राज्य में स्थायी निवास का वर्ष 1950 करने की मांग भी उठ रही है। धामी सरकार ने कमेटी बनाकर फिलहाल इन मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाला हुआ है। महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज होने का भाजपा का फार्मूला क्या रंग लाएगा यह देखना बाकी है। महाराष्ट्र में किसी भी एक दल को बहुमत नहीं है, इसलिए वहां पर भविष्य में बनने वाले गठबंधन माहौल बनाने में मददगार होंगे।

जिस राज्य के बारे में भाजपा कुछ अाश्वस्त हो सकती है, वह उत्तर प्रदेश है। योगी आदित्यनाथ सरकार की कार्यशैली से भाजपा का कोर वोटर खुश है। प्रदेश के 17 नगर निगमों के चुनाव में भाजपा की जीत से साफ है कि राज्य का वोटर अभी उसके साथ जुड़ा हुआ है। कुलमिलाकर कहा जा सकता है कि भाजपा के लिए अगला लोकसभा चुनाव काफी चुनौती पूर्ण होने जा रहा है। इसलिए भाजपा को अपने संगठन व सरकारों के साथ ही अपनी रणनीति की भी सर्जरी करने की जरूरत है।

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