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पूरे कश्मीर से पाकिस्तान को खदेड़ने की तैयारी कर ली थी करियप्पा ने, अमेरिकी दबाव में सरकार ने रोका

सेना मुख्यालय के आदेशों की अवहेलना कर करियप्पा ने पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त कराए थे लद्दाख, कारगिल, जोजिला, द्रास, पुंछ व नौशेरा

फील्ड मार्शल कोडनदेरा मडप्पा करियप्पा की 15 मई को पुण्यतिथि है। आप यह भी जानते ही होंगे कि करियप्पा देश के पहले सेनाध्यक्ष थे। लेकिन, हम आज आपको करियप्पा के बारे में कुछ ऐसा बताने जा रहे हैं, जो आप में से अधिकतर ने पहले नहीं सुना होगा। सबसे पहले आपको बताते हैं कि अगर करियप्पा नहीं होते तो शायद आज कश्मीर व लद्दाख हमारे पास नहीं होता। करियप्पा आजादी के बाद नवंबर 1947 में लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर प्रोन्नत हुए और उप सेनाध्यक्ष बनाए गए। उनको पूर्वी सेना की कमान दी गई। लेकिन, जब 1948 में कश्मीर में पाकिस्तानी हमले के बाद हालात खराब होने लगे तो उन्हें दिल्ली और पूर्वी पंजाब का जीओसी-इन-सी नियुक्त किया गया। कामन हासिल करने के तुरंत बाद उन्होंने इसका नाम पश्चिमी कमान कर दिया और इसके मुख्यालय को जम्मू ले गए। उसके बाद उन्होंने पाकिस्तानी हाथाें में जा चुके नौशेरा, झांगर, पुंछ, जोजिला, द्रास और कारगिल को हासिल करने के लिए किप्पर, इजी और बिसोन में हमला बोल दिया। इसके बाद पूरे कश्मीर से पाकिस्तानी सेना को बाहर करने की योजना बनाई गई। लेकिन, अमेरिका के दबाव में देश की जवाहरलाल नेहरू सरकार ने उन्हें रोक दिया। 6 जुलाई 1948 को सेना मुख्यालय ने करियप्पा को उसकी अनुमति के बिना किसी भी तरह का बड़ा ऑपरेशन न करने के कड़े निर्देश दिए। लेकिन, करियप्पा ने इसका विरोध करते हुए कहा कि इस नीति से लेह, कारगिल और अंतत: पूरे कश्मीर को ही खतरा पैदा हो जाएगा। करियप्पा ने हमले जारी रखने के लिए दो ब्रिगेडों की मांग की, लेकिन उन्हें एक ही ब्रिगेड उपलब्ध कराई गई। करियप्पा ने सेना मुख्यालय के आदेश की अवहेलना करते हुए लद्दाख में हमला बोल दिया और उसे कब्जे में ले लिया। वह पाकिस्तान के खिलाफ लगातार हमला करते रहे। इसमें भारी खतरा था, क्योंकि विफल होने पर भारतीय सेनाओं के लिए खतरा हो सकता था। असल में करियप्पा शुरू से ही गलत बात का विरोध करने से नहीं चूकते थे। यहां तक कि ब्रिटिश शासन के दौरान भी उन्होंने भारतीय सेना में गोरों के मुकाबले भारतीय अफसरों से होने वाले भेदभाव का मुद्दा उठाने से गुरेज नहीं किया था।

आप यह भी जानते होंगे कि आजादी के बाद भी भारतीय व पाकिस्तानी सेनाओं की कमान अंग्रेज अफसरों के हाथों में थी। पाकिस्तान ने तो कुछ समय के बाद ही अपना जनरल नियुक्त कर दिया था, लेकिन भारतीय सेना डेढ़ साल तक अंग्रेज ले.जनरल सर रॉय बुचर के मातहत काम करती रही। जनवरी 1949 में बुचर का कार्यकाल जब समाप्त होने लगा तो उनकी जगह भारतीय जनरल की नियुक्ति का फैसला लिया गया। करयप्पा के अलावा ले. जनरल श्रीनागेश और नाथूसिंह इस दौड़ में सबसे आगे थे। रक्षा मंत्री बलदेव सिंह करियप्पा के पक्ष में नहीं थे। लेकिन, श्रीनागेश और नाथूसिंह ने सरकार के प्रस्ताव का ठुकरा दिया और करियप्पा पहले भारतीय सेनाध्यक्ष बन गए। करियप्पा ने 15 जनवरी 1949 को कार्यभार संभाला और यही दिन देश में सेना दिवस के रूप में मनाया जाता है।

करियप्पा ने अनेक ऐसे फैसले भी लिए, जिनसे अनेक लोग असहमत हो सकते हैं। उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी आईएनए के पूर्व सैनिकों को सेना में भर्ती करने से इनकार कर दिया था, हालांकि नेहरू इसके पक्ष में थे और जब उन्होंने इसके लिए बहुत दबाव डाला तो करियप्पा ने इस्तीफा देने की धमकी दी। असल में करियप्पा सेना को राजनीतिक मामलों से दूर रखना चाहते थे। हालांकि करियप्पा में आईएनए के नारे जयहिंद को सेना में शामिल कर लिया और बाद में यह सैनिकों के बीच अभिवादन का जरिया बना। करियप्पा ने ही अन्य सरकारी विभागों की तरह सेना में आरक्षण के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।

चार साल के कार्यकाल के बाद 14 जनवरी 1953 को करियप्पा रिटायर हो गए। सेवानिवृत्ति के बाद वह 1956 तक ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में उच्चायुक्त रहे। 28 अप्रैल 1986 को उनकी सेवाओं के लिए उन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि प्रदान की गई।

 

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