रहस्यलोक

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की कहानी : क्या अभी सच सामने आना बाकी है?

भाजपा के शिखर पुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 106वीं जयंती 25 सितंबर को ही मनाई गई है। लेकिन, आज भी उनकी मौत के रहस्य से परदा नहीं हट सका है। उपाध्याय 11 फरवरी 1968 को वाराणसी के पास मुगलसराय स्टेशन पर संदिग्ध हालात में मृत पाए गए थे। वह उस समय भारतीय जनसंघ (बाद में भारतीय जनता पार्टी) के अध्यक्ष थे। िजन हालात में उपाध्याय की मौत हुई वह काफी चौंकाने वाले थे। ट्रेन के जिस डिब्बे में उपाध्याय सफर कर रहे थे, वह आधा प्रथम श्रेणी और आधा तृतीय श्रेणी का था। उपाध्याय का टिकट प्रथम श्रेणाी के ए कूपे का था, लेकिन वह बी कूपे में बैठे थे। एक कूपे में चार बर्थ थीं, जबकि बी कूपे में दो बर्थ थीं। ए कूपे में दो यात्री थे, लेकिन बी कूपे में उपाध्याय ही अकेले थे। उपाध्याय के शरीर पर चोटों के भी निशान थे। उस समय की इंदिरा गांधी सरकार ने मामले की गंभीरता को भांपते हुए इस मामले की जांच सीबीआई के तेजतर्रार अफसर जॉन लोबो को सौंपी।

लोबो को मुगलसराय से क्यों बुलाया?

एक ईमानदार और स्पष्ट ऑफिसर की छवि रखने वाले लोबो को जैसे ही जांच सौंपी गई, वह अपनी टीम के साथ मुगलसराय पहुंच गए। वह जांच पूरी भी नहीं कर पाए थे कि उन्हें बीच में ही वापस बुला लिया। सरकार के इस कदम से यह संदेह उपजा कि वह जांच की दिशा बदलना चाहती है। लोबो को दबाव में नहीं लिया जा सकता था, इसलिए उन्हें मुगलसराय से वापस बुलाया गया।

सीबीअाई का निष्कर्ष – चोरों ने दिया था उपाध्याय को ट्रेन से धक्का?

सीबीआई ने अपनी जांच में बताया के उपाध्याय की हत्या लुटेरों ने की थी। सीबीआई ने जांच में पाया कि ट्रेन के मुगलसराय स्टेशन आने से ठीक पहले लुटेरों ने उपाध्याय को कोच से धक्का दे दिया था। उसके मुताबिक साथ के कूपे में सफर कर रहे एक यात्री ने एक व्यक्ति को उपाध्याय के कूपे में घुसते और मुगलसराय में उनके सामान और फाइलों के साथ उतरते हुए देखा था। बाद में इस व्यक्ति की पहचान भरतलाल के रूप में हुई। सीबीआई ने बाद में भरतलाल और उसके साथी राम अवध को हत्या और चोरी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। उन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और सीबीआई को बताया कि उपाध्याय ने उन्हें बैग चुराते हुए देख लिया था और पुलिस को रिपोर्ट करने की धमकी दी जिस पर उन्होंने उपाध्याय को ट्रेन से धक्का दे दिया।

कोर्ट की टिप्पणी से खड़ा हुआ सवाल

सीबीआई जांच के आधार पर 9 जून 1969 को दिए फैसले में कोर्ट ने सुबूतों की कमी की वजह से दोनों ही आरोपियों को हत्या के आरोप से बरी कर दिया और केवल भरतलाल को चोरी का दोषी माना। सेशन कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि “आरोपियों के खिलाफ हत्या का आरोप साबित नहीं हो सका है, हत्या के बारे में सत्य की समस्या अब भी बरकरार है।”

सच जानने के लिए बना चंद्रचूड़ आयोग

कोर्ट के फैसले और टिप्पणी के बाद हुए बवाल के बीच 70 सांसदों ने सच की तह तक पहुंचने और मामले के पीछे की साजिश को बेनकाब करने के लिए न्यायिक जांच आयोग के गठन की मांग की। कोर्ट के फैसले के करीब पांच महीने बाद 23 अक्टूबर 1969 को जस्टिस वायवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में जांच आयोग का गठन हुआ। कमीशन ने अपनी जांच में उपाध्याय की मौत के पीछे किसी तरह की साजिश से इनकार किया और उनकी हत्या को संदिग्ध हालात में हुई नहीं माना। आयोग ने अपनी टिप्पणी में कहा कि मुगलसराय में जो भी हुआ वह कल्पना से अलग है। कई लोगों ने संदेह पैदा करने के लिए असामान्य व्यवहार किया। ऐसे हालात में उन्होंने जो भी किया वह आम मानवीय व्यवहार के प्रतिकूल था, लेकिन उसकी उम्मीद की जाती है। इसी तरह से मुगलसराय में हुई कुछ घटनाएं असामान्य थीं। जब किसी आदमी या घटना के बारे में आम लोगों की उम्मीद कुछ और होती है तो संदेह पैदा होता है। इस घटना में इस तरह के संदेहों का कोई अंत ही नहीं था। इससे ऐसी धारणा बनी की असल मामले की छुपाने की कोशिश हो रही है।

जेम्स बॉन्ड की मूवी जैसी थी कुछ घटनाएं

जिस दिन उपाध्याय की हत्या हुई वह सियालदह एक्सप्रेस से लखनऊ से पटना जा रहे थे। वह प्रथम श्रेणी में सफर कर रहे थे और इसमें ए,बी व सी तीन कूपे थे। ए में चार बी में दो और सी कूपे में चार बर्थ थीं। उनकी बर्थ ए कूपे में थी और उनके साथ एक सरकारी ऑफिसर एमपी सिंह भी उसी कूपे में थे। उपाध्याय ने विधान परिषद सदस्य गौरीशंकर राय के साथ सीट बदल ली और वह बी कूपे में चले गए, जहां पर कोई दूसरा यात्री नहीं था। सी कूपे में मेजर एसएल शर्मा का रिजर्वेशन था, लेकिन वह इसकी बजाय सेना के कोच में सफर कर रहे थे। आयोग ने कहा, हालात और घटनाओं का क्रम ऐसा था कि जैसे जेम्स बॉन्ड की कोई डरावनी मूवी हो। मेजर एसएम शर्मा का नाम एक जगह नहीं, बल्कि दो-दो जगह गलत लिखा हुआ था। यही नहीं उनके टिकट का नंबर भी गलत लिखा हुआ था। एमपी सिंह और कंडक्टर बीडी कमल के विरोधाभासी बयानों, उपाध्याय की मौत के बाद उनकी जेब में रखे टिकट से उनकी पहचान करने की बजाय उनके शव को चलताऊ तरीके से ठिकाने लगाने की कोशिश और उनके कंपार्टमेंट में मिली फिनाइल की शीशी, उनके शरीर पर लगी चोटों की प्रकृति ने कई सवाल खड़े किए। सबसे रोचक पहलू यह था कि हर घटना से किसी न किसी रेलवे कर्मी के तार जुड़े थे।

इस सबके बावजूद अनेक लोगों का मानना है कि न तो सीबीआई और नही चंद्रचूड़ आयोग इस हत्या की तह तक पहुंच सका है। इस बारे में समय समय पर दोबारा जांच की मांग उठती रही है। 2017 में उपाध्याय की भतीजी और कई अन्य नेताओं ने इस कांड की फिर से जांच कराने की मांग की। उपाध्याय कर जन्म 25 सितंबर 1916 को मथुरा के नगला चंद्रभान गांव में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर थे।

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