
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठने अधीनस्थ न्यायिक सेवा परीक्षा में शामिल होने के लिए तीन वर्षों का व्यावहारिक अनुभव अनिवार्य कर दिया है. इस पीठ में न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह और न्यायमूर्ति के.वी. चंद्रन भी शामिल थे. 1996 में गठित न्यायमूर्ति शेट्टी आयोग ने पाया कि अधिकांश राज्यों ने इस तीन-वर्षीय अनुभव नियम को अपनाया था और कुछ राज्यों ने न्यूनतम योग्यता तीन साल से अधिक निर्धारित की थी. इस समस्या का समाधान यह बताया गया था कि युवा प्रतिभाओं को प्रारंभ में ही चयनित कर उन्हें दो वर्ष या अधिक की गहन प्रशिक्षण अवधि प्रदान की जाए, जिसमें शैक्षणिक और व्यावहारिक दोनों कौशलों का प्रयोग कर निचली न्यायपालिका की दक्षता को बढ़ाया जाए. जबिक, सुप्रीम कोर्ट की उम्मीद यह है कि तीन वर्षों का अभ्यास भावी न्यायाधीशों को अदालत की मर्यादा बनाए रखने, जटिल प्रक्रियागत मामलों से निपटने तथा न्याय प्रणाली के विभिन्न पक्षों की समझ विकसित करने में मदद करेगा. इस विषय पर चर्चा सबसे पहले 1958 में भारत के 14वें विधि आयोग की रिपोर्ट में की गई थी. आयोग ने सुझाव दिया था कि 3 से 5 वर्षों के अनुभव वाले वकीलों को अधीनस्थ न्यायाधीश परीक्षाओं में शामिल होने की अनुमति दी जानी चाहिए. इस परीक्षा में व्यावहारिक पहलुओं से जुड़े प्रश्न पूछे जाने चाहिए थे न कि केवल रटंत प्रणाली पर आधारित. हालांकि, प्रस्तावित अखिल भारतीय न्यायिक सेवा में अनुभव की अनिवार्यता नहीं थी. वहां सिर्फ लॉ डिग्री धारक युवा स्नातकों को चयनित कर प्रशिक्षण के माध्यम से व्यावहारिक ज्ञान देने का सुझाव था. 1992 में ‘ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन बनाम भारत संघ’ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एआईजेएस का समर्थन किया और नए स्नातकों को परीक्षा में बैठने की अनुमति दी. लेकिन, 1993 की पुनर्विचार याचिका में कोर्ट ने तीन साल के अनुभव को अनिवार्य कर दिया. कोर्ट का कहना था कि सीधे विश्वविद्यालय से निकले स्नातकों को जज की महत्वपूर्ण भूमिका देना ना तो व्यावहारिक है और ना ही उचित. क्योंकि, उन्हें जीवन, स्वतंत्रता, संपत्ति और प्रतिष्ठा जैसे संवेदनशील मुद्दों पर निर्णय लेने होते हैं.
प्रतिभा को आकर्षित करने की चुनौती
2002 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि तीन वर्ष के नियम से सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं न्यायिक सेवा में नहीं आ रहीं और इस नियम को समाप्त कर दिया गया. न्यायमूर्ति शेट्टी आयोग की सिफारिश थी कि युवा प्रतिभावान स्नातक तीन साल अभ्यास के बाद न्यायिक सेवा को आकर्षक नहीं मानते. लेकिन फिर से सुप्रीम कोर्ट उसी तीन वर्ष के नियम पर लौट आया है, क्योंकि यह सवाल अब भी बना हुआ है कि बेहतर प्रतिभा और आवश्यक अनुभव के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए.
वास्तविकताएं और व्यावहारिक समस्याएं
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों से निकले बेहतरीन छात्र निजी कंपनियों में मोटे वेतन पर चयनित हो जाते हैं और महंगी फीस चुकाने के लिए उन्हें जल्दी कमाई शुरू करनी होती है.
15-20 लाख तक की फीस वाले कोर्स के छात्र तीन साल की अभ्यास अवधि नहीं ले सकते, खासकर आर्थिक रूप से कमजोर व एससी/एसटी/ओबीसी वर्गों के छात्र.
महिलाओं को भी इससे बड़ा नुकसान होगा, क्योंकि मातृत्व अवकाश या करियर ब्रेक के कारण उनकी प्रगति प्रभावित होगी.
आयु सीमा भी एक समस्या है. जहां यूपीएससी जैसी सेवाओं में अंतिम वर्ष के छात्र भी परीक्षा दे सकते हैं, वहीं न्यायिक सेवा के लिए 5-6 वर्ष की शिक्षा और फिर 3 साल का अनुभव जरूरी होगा.
परीक्षाएं नियमित रूप से नहीं होतीं, जिससे योग्य उम्मीदवारों को वर्षों इंतजार करना पड़ता है.
क्या किया जा सकता है?
- युवा प्रतिभाओं को प्रारंभिक स्तर पर ही चयनित किया जाए और उन्हें दो या अधिक वर्षों का प्रशिक्षण दिया जाए जिसमें:
- जिला न्यायाधीशों के साथ पर्यवेक्षण में सेवा
- वरिष्ठ वकीलों के साथ छह महीने की संलग्नता
- परीक्षा पद्धति में सुधार हो:
- रटंत सवालों की जगह परिदृश्य आधारित प्रश्न हों
- जजमेंट लेखन को अधिक महत्व दिया जाए
तीन वर्ष की अनिवार्यता को दोबारा लागू करने से न्यायिक सेवा में प्रतिभाशाली और विविध पृष्ठभूमि से आने वाले युवाओं की भागीदारी सीमित हो सकती है. बेहतर उपाय यह होगा कि शिक्षा और प्रशिक्षण के संतुलित मॉडल के जरिए प्रभावी और सक्षम न्यायाधीश तैयार किए जाएं.