पांच हजार मीटर से अधिक ऊंचाई पर जमी हुई झील के भीतर और उसके आसपास बिखरे सैकड़ों नरमुंड व मानव शरीर के अन्य हिस्से एक सिहरन सी पैदा करते हैं। जिस झील तक पहुंचना अत्यंत दुरूह हो और दूर-दूर तक किसी तरह की आबादी भी न हो, वहां इन नरमुंडों का मिलना का एक कुतूहल पैदा करता रहा है। इनको लेकर कभी कहा गया कि इस झील के िकनारे किसी तरह के अनुष्ठान होते थे और ये नरमुंड नरबलि के प्रतीक हैं। कभी कहा गया कि कन्नौज के राजा एक बार यहां आएं थे और किसी प्राकृतिक आपदा की वजह से वे सब यहां पर मारे गए। कभी इन्हें जापानी सैनिकों के अवशेष कहा गया तो कभी कहा गया कि ये सिल्क रूट से जाने वाले यात्रियों के अवशेष हैं। बड़ा सवाल यह है कि अाखिर इतने नरमुंड और कंकाल यहां आए कहां से और ये लोग थे कौन?
जी हां आपने ठीक समझा है, हम उत्तराखंड की सबसे रहस्यमय रूपकुंड झील के नरमुंडों की ही बात कर रहे हैं। दुनिया के अनेक विद्वान और वैज्ञानिक इस रहस्य को जानने के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन रहस्य है कि गहराता ही जा रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यहां पर जितने जवाब है, उससे कहीं अधिक सवाल हैं। 2009 में एक बार ऐसा लगा था कि मानो इन नरमुंडों का रहस्य सुलझ गया है। लेकिन, इसके दस साल बाद कुछ ऐसा हुआ कि एक बार फिर अनेक सवाल खड़े हो गए। आजादी से पूर्व 1942 में सबसे पहले एच.के. मधवाल नाम के वन विभाग के कर्मचारी ने इस झील में फैले इन नरमुंडों को देखा। उसने अपनी रिपोर्ट में इस रहस्यमय झील में 300 से 800 लोगों के यहां मरे होने की बात कही। 1950 में इस बात को सार्वजनिक किया गया और इसके बाद इस झील के बारे में जानने को लेकर जो कुतूहल व्याप्त हुआ वह आज भी जारी है। इस झील तक अंतिम गांव से पैदल जाने में करीब सप्ताह भर का समय लगता है। देवदार के घने जंगलों और बुग्यालों के बीच से होते हुए करीब 50 किलोमीटर की चढ़ाई तय करके यहां पहुंचा जा सकता है। इस चढ़ाई का सबसे ऊंचा स्थान जुनारगली है और इस चोटी के 200 मीटर नीचे रूपकुंड है। यह पहाड़ी इतनी खतरनाक है कि इसके बारे में एक चुटकुला भी चर्चित है कि एक गलत कदम रूपकुंड के कंकालों में आसानी से एक और कंकाल जोड़ देगा।
शुरुआती अनुमानों में रूपकुंड के कंकालों को जापानी सैनिकों अथवा सिल्क रूट पर जाने वाले तिब्बती यात्रियों का बताया गया। 2004 में फोरेंसिक जांच के बाद यहां के बारे में सबसे विश्वसनीय कहानी सामने आई। जांच में पता लगा कि मरने वालों में पुरुष और महिलाएं दोनों ही शामिल थे। जो नौवीं शताब्दी यानी करीब 1200 साल पहले एक ही दिन भारी ओलावृष्टि में मारे गए। ये श्रद्धालु थे और इनके साथ स्थानीय कुली भी थे। इन लोगों के ओलों से मरने का अनुमान लगाने की वजह थी इनके सिर और गर्दन के नीचे पर लगी चोट, जो क्रिकेट की बॉल जैसी किसी गोलाकार चीज के प्रहार से लगी थी। इन लोगों के बारे में बताया गया कि ये लोग शायद 12 साल में एक बार होने वाली नंदा देवी राजजात यात्रा पर जा रहे थे। यह राजजात यात्रा आज भी जारी है। रूपकुंड इस यात्रा के अंतिम पड़ाव होमकुंड के रास्ते में आता है। इस शोध में शामिल लोगों ने इन लोगों को तीर्थयात्री इस वजह से माना कि रूपकुंड के अवशेषों से किसी भी तरह का हथियार नहीं मिला था। इससे यह भी संकेत मिला कि इन लोगों की मौत किसी तरह के हमले में नहीं हुई थी, क्योंकि वे सैनिक नहीं थे। यहां पर कुछ वाद्ययंत्रों के अवशेष भी मिले, जिससे इनके नंदादेवी राजजात यात्रा में शामिल होने का अनुमान लगा, क्योंकि आज भी यह यात्रा पूरे गाजेबाजे के साथ निकलती है। यही नहीं डीएनए जांच से पता लगा कि मरने वाले लोगों में हर आयु वर्ग की महिला व पुरुष थे। इस कहानी ने एक तरह से इस झील के रहस्य को विराम सा दे दिया। हालांकि, स्थानीय लोग इसे देवी का प्रकोप मानते थे और उनका कहना था कि जिन लोगों से देवी नाराज हुई उन्हें देवी ने पत्थर में बदल दिया। यह कहानी सुनाने वाले आज भी आपको मिल जाएंगे।
इस शोध के बाद तो रूपकुंड को पूरी दुनिया में मशहूरी मिल गई और बड़ी संख्या में लोग ट्रैकिंग के लिए यहां आने लगे। यही नहीं, 2009 में बेंगलुरू की एक कंपनी ने तो सस्ता ट्रैंकिग पैकेज भी ऑनलाइन लांच कर दिया। यहां पर बड़ी संख्या में लोगों के आने का असर यह हुआ की वे यहां से खोपड़ियां और अन्य अवशेष यादगार के रूप में ले जाने लगे। हालांकि, बाद में यहां पर व्यावसायिक ट्रैकिंग पर रोक लगा दी गई, क्योंकि इससे यहां मौजूद बुग्यालों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया था।
2010 में पहली बार प्राचीन मानव का जिनोम सीक्वेंस जानने मेंं सफलता मिली। इससे रूपकुंड का रहस्य एक बार फिर चर्चा में आ गया और 2014 में कलकत्ता के एंथ्रोपॉलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में रखे रूपकुंड की हड्डियों के 38 नमूनों को दुनिया भर की 16 प्रयोगशालाओं में जिनोमिक और बॉयोमोलेकुलर जांच के लिए भेजा गया। पांच साल के बाद इस जांच का नतीजा प्रकाशित हुआ, जिसने दुनिया को चौंका दिया। नई जांच में पाया गया कि जिन 38 कंकालों के ये नमूने थे वे जेनेटिकली तीन अलग वर्ग के लोगों के थे और ये कंकाल एक ही दिन के नहीं थे, बल्कि वे 1000 साल के दौरान अलग-अलग समय पर इस झील की तली में पहुंचे थे। इनमें एक ग्रुप दक्षिण एशियाई लोगों का था, जिनके अवशेष झील में सातवीं से दसवीं सदी के बीच अलग अलग समय में जमा हुए थे। एक अन्य ग्रुप के अवशेष भूमध्य सागर में मौजूद यूनानी द्वीप क्रीट मूल के लोगों के थे। इन सभी लोगों की मौत 19वीं सदी में यहां एक ही दिन हुई थी। इसके अलावा तीसरा ग्रुप दक्षिण पूर्व एशिया के लोगों का था और यह भी 19वीं सदी का ही था। इन नतीजों ने वैज्ञानिकों को चौंका दिया है। क्योंकि गैर भारतीय लोगों के अवशेष इस झील से मिलना नए सवालों को जन्म दे रहा है। क्योंकि ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, जिससे इन लोगों की इस दुरूह इलाके में मौजूदगी की वजह पता चलती हो। यह भी नहीं पता कि ये विदेशी लोग थे या फिर ऐसे स्थानीय लोग, जिनके पूर्वज विदेशी थे। इस रहस्य के बारे में और अधिक जानकारी जुटाने के लिए रूपकुंड में खुदाई की जरूरत होगी, जो फिलहाल संभव नहीं लगता। आपको बता दें कि नई जांच के लिए जिन 38 नमूनों को भेजा गया था, उनमें से सिर्फ छह लोगों की मौत ही ओले की चोट से हुई थी। अब सवाल यह है कि बाकी लोगों की मौत की वजह क्या थी। इस शोध ने एक बार फिर रूपकुंड को लेकर नए सवाल खड़े कर दिए हैं, हो सकता है भविष्य में हमें इसका जवाब मिले, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि रूपकुंड का रहस्य अभी बरकरार है और जिस तरह से सवाल बढ़ रहे हैं, वैसे ही उनका जवाब जानने की उत्कंठा कुछ नया लेकर तो आएगी ही। वैज्ञानिकों का कहना है कि रूपकुंड के 38 नमूनों ने ही पूरी कहानी में रोचक मोड़ ला दिया है, अब अगर रूपकुंड की तली से सैकड़ों शवों के अवशेषों को निकाला जाए तो न जाने किस रहस्य का पर्दाफाश होगा। मेरे दोस्त रूपकुंड की असली कहानी को अभी बाकी है।